कांग्रेस अपनी अस्पष्ट नीतियों का खामियाजा लगातार भुगत रही है, किन्तु उनसे कोई अनुभव लेने का तैयार नहीं लगता। ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस का नेतृत्व अनुभवहीन हाथों में है। इससे पहले भी कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी के हाथों मे ही रही है।
कांग्रेस अपनी गलतियों की लगातार कीमत चुकाने के बावजूद सबक सीखने को तैयार नहीं लगती है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा जब केंद्र में पहली बार सत्ता में आई थी, तभी उसके इरादों से साफ हो गया था कि कांग्रेस की कमजोर नसों को दबा कर देश से व्यापक समर्थन हासिल करेगी। इसी कमजोरी की सबसे प्रमुख कड़ी थी भ्रष्टाचार। भाजपा ने इस मुद्दे पर कांग्रेस की घेराबंदी में कसर बाकी नहीं रखी। प्रत्युत्तर में कांग्रेस हमलावर होने की बजाए बचाव की मुद्रा में ही नजर आई।
पी. चिदम्बरम मामले में भी कांग्रेस की यही हालत है। चिदम्बरम या दूसरे ऐसे ही मामलों में फंसे नेताओं के बचाव में कांग्रेस शुरू से यही दुहाई देती रही है कि केंद्र की मोदी सरकार बदले की भावना से कार्रवाई कर रही है। किन्तु कांग्रेस ने यह कभी नहीं कहा कि पार्टी की नीति भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की है। आरोपों से घिरे नेताओं को अपने जवाब खुद देने होंगे। कांग्रेस उनके कर्मों के लिए जिम्मेदार नहीं होगी। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कांग्रेस ने एक भी बार भी दागी नेताओं से यह नहीं कहा कि अदालतों पर भरोसा करना चाहिए। यदि केंद्रीय जांच एजेंसियों ने केंद्र सरकार के इशारे पर दुर्भावनापूर्वक कार्रवाई की भी है तो अदालत दूध का दूध पानी का पानी कर देगी। बरी होने के बाद आरोपी नेता जांच एजेंसी के खिलाफ अदालत में मामला दायर कर सकते हैं।